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बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

वसंत ! तुम आना जरूर !!

मेरे जिस्मसे पाता मै,
कभी जुगनुओंसे दाने;
          कभी चमकीले,कभी अंधियारे

इन दानोंको बो देता हूं,
जिस्मकी मु्ठ्ठीभर माटीमें;
          सोचकर यह की..

पौधे उगेंगे कभी चांदनीके,
मेरेही अपने जिस्मपर;
          यह सोचना कितना सरल है..

जितना वैशाखसे लिपटे कायाको,
वसंतका आभास देना;
          कितने वसंत बीत जाते है..

इस कायाको जुगनुसा लुभाकर,
लेकीन वसंत! मैं तुम्हें जुगनुओंमें;
          नही चांदनीमें चाहता हुं...

तुम चांदनीमें आओगे भी, लेकीन,
मेरी प्रतीक्षा करती आंखेही;
          ’पथ’ बन चुकी होगी..

हाथ क्या आयेगा तब अधःकार के,
धागोंको सिमटकर सुर्य बुनते;
          भूतकाल स्मृति के अलावा..

कितने ऋतू आते है, जाते है,
मैं उन्हें रोक नही सकता;
          लेकीन वसंत !तुम आना जरूर!!