ओ! 'उषा ' रम्य रमणिक की,
तुम प्रथम अनुपम कली ।
बन प्रतीक्षा की पर्यायी,
'अशोक' दर आकर ढली।
रजनीके सिंगार में तेरी,
जीवन बेला उदित हुई।
तबसे तेरे मात-पिताने,
आनन्दित मकरंद छुई।
जीवन हो संगीत गीतमय,
भाग्य सर्वदा मीत तुम्हारा।
मात-पिता प्रिय की तुम प्यारी,
करना तुम निर्माण भी प्यारा।
फ़ागुन की रंगी क्रिडामें,
सावन का सतरंग फ़ुहारा।
शरद्काल की धूप चांदनी,
हो वसंत भी प्यारा प्यारा।
यूं 'आगन्तुक' स्नेहका, देता है वो हार।
जहां प्यार फ़ूले फ़ले, खिले प्यार ही प्यार॥
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