विस्मृत कैसी होगी
वह धनतेरस की रात
और
आलिशान इमारतोंपर
जगमगाते दीप.
विस्मृत कैसी होगी
मेरी अपनी कुटियाकी
वह बिना दीये की शाम
और
बासी को सेंकते
चूल्हेमें जलते आंसू
भूल तो मेरी ही थी,
मैंने उन इमारतोंको
आंखोमें बसा लिया था.
शुक्रवार, 6 जुलाई 2007
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2 comments:
भूल मेरी ही थी --- बहुत ही सुन्दर लिखा है अशोक जी
BEHAD KHUB
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