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रविवार, 1 जुलाई 2007

गीत

दर्पण भी टूट्ना सीखा
मेरे हृदय की दरारोंसे ।

खुशीयोंको कहां छिपाऊं ?
कलियोंमे या सुमनोंमे
आंसूओंको कहां छिपाऊ ?
सरिता में या झरनोंमे

झरनोंने भी झरना सीखा
मेरे नयनोंकी आसूओंसे ॥

दोस्तोंका क्या बयां करूं
वह तो बिछडे साथी हुए
जब देते दर्द शूलसा
फ़ूल पाकर भी बेईमान हुए

फ़ूलोंने भी हसना सीखा
मेरे जीवन बहारोंसे ॥

यहां कोई किसीका सगा नही
एक दुसरोंकी दुहाई देता
चिडियां भी चहकती हॆ
आसमानसे कहकर नाता

चिडियोंने भी चहकना सीखा
मेरे शब्द - गरिमासे ॥

1 comments:

शोभा ने कहा…

अति सुन्दर कविता ।
बहुत- बहुत बधाई ।